Saturday, August 23, 2014

Charitra in Hindi

Below are the few charitra in Hindi out of thousands available. These charitra are already written by the saints who were living with Swaminrayan Bhagavaan and has been handed over by them to their disciples. 

I have just translated those in Hindi which I liked out of those available with me. I hope these would be beneficial to my Hindi speaking friends. I will try to update this blog with new ones as and when time permits.

As per promise given by Lord Swaminrayan, if any one will remember a single charitra of Him, will not have to take birth again and will surly attain his divine abode Akshardham. Please refer to Shloka 20,21 of Adhyay 8 of Gita for meaning of Akshardham

Jai Swaminarayan
Hariax Thoria


राजकोट के नारणभाई को शिवजी ने दर्शन दिए 


राजकोट शहर  में एक लुहाना कुटुंब के नारणभाई  सद्गृहस्थ रहते थे. वह शिवजी के ananny उपासक थे. और जो भी संत, साधु राजकोट  में आते थे उनकी तन , मन से बहुत अच्छी तरह सेवा करते थे. वह सुखी और धनिक थे.
वह दुखी लोगो के देखके बहुत दुखी हो जाते  थे और  उनको हर प्रकार से मदद करने लगते थे.
उनको एक अच्छा नियम था. वह हररोज पंचनाथ महादेव जाते थे और भगवान शिवजी की पूजा करते थे. हर सोमवार शिवजी को प्रसन्न करनेके लिए करते थे. और श्रवण महीने में सवा लाख बिली पत्रों से शिवजी की पूजा करते थे. वह शिवजी का पूजन सिर्फ शिवजी को प्रसन्न करने के लिए  ही करते थे  नहीकी कोई दुनयावी मनोकामना सिद्धि के लिए. ऐसे के सालों तक उन्होंने शिवजी की पूजा की. एक दिन शिवजी उनकी निष्काम भक्ति देख बहुत प्रसन्न हुए और उनको चतुर्भुज रूप में दर्शन दिया. शिवजी के एक हाथ में शंख, दूसरे हाथ में त्रिशूल और दुसे दो hatho में डमरू और  अभय वरदान  देते शिवजीने कहा मैं तुम्हारी निष्काम भक्ति  से  बहुत प्रसन्न  हु. तुम मांगो. तब  नारणभाई  ने कहा मेरा मोक्ष हो ऐसा कीजिए. शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा यदि तुम्हे मोक्ष चाहिए तो प्रगट भगवान श्री स्वामिनारायण का आश्रय करो. यही राजकोट में स्वामिनारायण भगवान का मंदिर है वह जाओ ओर उनके स्त्री और धन के सच्चे त्यागी  संत बालमुकुंददसजी से सत्संगी बनो.

नारणभाई  खुश होकर दूसरे दिन सुबह स्वामिनारायण मंदिर पहुंचे और स्वामीजी से मिले. स्वामीजी ने कहा हम सब संत अष्टप्रकार से स्त्री के त्यागी है. हम स्त्री के साथ बोलते नहीं, देखते नहीं, स्पर्श नहीं करते, चित्र नहीं बनते, उनके हाथ का खाना नहीं खाते।  यह हमारा निष्काम वर्तमान है.

हम धन रखते नहीं है. और किसी और के पास हमारे लिए धन रखवाते भी नहीं है. धातु पात्र या ऐसे कोई रजोगुणी वस्तु हम स्वामिनारायण के संत अपने पास नहीं रखते है. सिर्फ ४ कपडा रखते है. यहाँ हमारा निर्लोभी वर्तमान है.

रसयुक्त आहार नहीं करते. सब खाना पत्तर में मिलाके उसमे पानी डालके भगवान का नाम स्मरण करते हुए भोजन करते है. यह हमारा निस्वाद वर्तमान है.

दुष्ट जन अपमान करे, गाली  दे, तिरस्कार करे फिर भी उसका भला सोचना और उसका  भला करना हमारा  निर्मानि वर्तमान है. .

इस प्रकार स्वामिनारायण के सभी संत यह सभी वर्तमान बखूबी यह कलियुग में निभाते है।

नारणभाई  ने कहा स्वामीजी मेरा कल्याण हो ऐसा उपाय बताये. अाप  तो अंतर्यामी हो. स्वामीजी ने नारणभाई को मुमुक्षु जानकर  दारु नहीं पीना, चोरी नहीं करनी, व्यसन नहीं करना, व्यभिचार नहीं करना, जुगार नहीं खेलना , मांस नहीं कहना यह पंच वर्तमान दिए. और भगवान की प्रसादी की कंठी मल पहनाई और स्वामिनारायण भगवान का आश्रित बनाया. और कहा की जो लोग प्रगट स्वामीनारायण भगवान का आश्रय करके यह पांच वर्तमान में रहके स्वामीनारायण भगवान की निष्काम भक्ति करेगा वो यह लोक में बहुत सुखी, समृद्द, और शांतिमय जीवन जियेगा और अंतकाल में उसको भगवान स्वामिनारायण खुद आपने अक्षरधाम में ले जायेंगे। यहाँ भगवान का वचन है.



धमडका के राजकुँवर रायघनजी ने स्वामिनारायण भगवान की परीक्षा की 


एक बार धमडका के दरबार लाघाजी के पुत्र रायघनजी भुज में महाराज के पास आये। रघनजी महाराज के चरण प्रस करके बोले हे महारज यदि आप भगवान है तो मेरे दाई हाथ अंगूठा मोड़ के बताये। 

महाराज तुरतन बोले "आदि आप में बल है तो मेरा  दाई हाथ अंगूठा मोड़ के बताये" फिर दरबार रायघनजी ने श्रीजी महाराज के दाई हाथ का अंगूठा अपने हाथ में लेके दबाने का मोड़ने का बहुत प्रयत्न किया पर जरासा भी मोड़ नहीं पाये तभी रायघनजी को श्रीजी महाराज  के भगवन होने का निस्चय हुआ। दरबार महारज के चरण स्पर्श कर के बोले "हे महाराज में इतना बलवान हु की दो  नारियल दोनों बगल में रख्खु, दो नारियल दोनोे कोहनी के निचे रखु,दो नारियल जांघ के बीच में रखु और दो नारियल घुटने के बीचमे रखके इन अथो नारियल को एक साथ दबाके फोड़ दू पर आपका में अंगूठा भी मोड़ नहीं पाया में हर गया आप मुझे अपना आश्रित बनाके कंठी पहनाई" 

तब महाराज ने उसकी सच्ची निष्ठा पहचान के उनको वर्तमान दिए और कंठी पहनाई रायघनजी महाराज को अपने गाव घमडका पधारने बिनती की मरहज ने धमडका जा ने का वचन दिया।  


अकाल के दिनों में खोलडियाद में रूडा सिधव के धर स्वामिनारायण भगवान 



एक बार श्रीजी महाराज गाव खोलडियाद   में रूडा सिधव के धर पधारे. तब वो भक्त के घर में दाने नहीं थे।  वो साल में  अकाल
 जैसा था।  
फिर महाराज  ने कहा "तू घर में अनाज के दाने रखना" तब वो बोला की " में कैसे अनाज के  दाने खरीदु मेरे घर में पैसे नहीं है".  तब महाराज ने कहा  की जेवरात  बचके अनाज के  दाने खरीदले।  " तब रूडा भकत बोला की जेवरात  भी नहीं है तब महाराज ने कहा  की पैसे उधार लेके दाने खरी दो।  तब रूडा भक्त बोला" मुझे गरीब को कोई उधार भी नहीं देगा " तब महाराज ने पुछा  की "तुम्हे साल  में कितना आनाज लगना  है" ? तब रूडा भक्त बोले  की "साल में पांच  कलशी अनाज चाहीअ " फिर महाराज ने  कहा "तब दाने के बिना क्या करो गे ? तब रूडा भक्त बोले की महाराज  ! आप मुझे जल्दी  से अक्षरधाम में लेजाना।  

तब महाराज ने उसकी परीक्षा करते कहा "तुम नागाडका सूरा खाचर के घर आना में तुम्हे खेत दिलवाऊगा वहा तुम गेहू और बाजरे की खेती करना रूडा भक्त ने कहा की मुझे  खेत नहीं चाहीइ" महाराज ने पूछा तुमने कुछ बोया है ? रूडा ने कहा हा महाराज जमींदार के  ५०बिघा  जमीन में बाजरा बोया है।  पर अकाल के कारन वो सुका हो गया है। और आज मुझे वो साफ करने जाना था पर आप पधारे इसलिए नहीं गया।  महाराज ने पूछा "वो खेत कहा है और किश्का है रूडा ने जवाब दिया लिमबली के जागीर दार का खेत है। 

फिर दूसरे दिन सूबे महाराज दूसरे गाव जाने के लिए   निकले।  दूसरे हरिभक्तों के साथ रूडा भक्त भी भगवान को गाव की सीमा तक छोड़ ने चले। रास्ते में एक खेत को देख के भगवान ने पूछा  क्या तेरी बाजरी ऐसे सुख गई है ? रुदा ने काया हा महाराज।  महाराज ने पूछा मेंने  तेरा खेत देखा है। तेरे खेत में बारिश होगई तो अच्छी  फसल होगी ? रूडा ने कहा बारिश होगी और भगवान की इच्छा  होगी तो फसल होगी। 

इसे महाराज रूडा के साथ बाते करते पांच छे किलोमीटर आगे गए। फिर रूडा और बाकि भक्तो को महाराज ने घर जाने को कहा। रुदा भक्त घर आके सो गए। दूसरे दिन सूबे रूडा का घर किसी ने खटखटाया और कहा तेरा खेत पानी से भरा है। रूडा ने पूछा कही पे बारिश नहीं है और मेरे खेत में पानी कैसे ?तब वो आदमी ने कहा की मेने अपनी आखो से देखा है तुम जाके देख लो। तब रूडा भक्त अपना खेत देखने निकले उनका खेत गौमुखी के आकर का था। उनोहो जाके देखा तो सिर्फ उनके खेत में ही पानी भरा था खेत की सीमा के आसपास कही पे भी पानी की एक बून्द भी नहीं था। वो देख के वो खुश  हो गया। उसने गाव में जाके  सब को बताया पुरे गाव  के लोग भी उसका खेत देख ने आए।  सब लोग देख के आश्चर्य चकित हुए और बोले कल महाराज इस के खेत का पूछ रहे थे तो महाराज की  कृपा से ही उसके खेत में ही पानी गिरा। दूसरे दिन ही उसके बाजरे में नील पान आने लगे। तभी रूडा  भक्त को महसूस हुआ की मेरे खेत में से महाराज मुझे बजरी देंगे फिर तो वो खेत में जोपडी बना के रहने लगे थोड़े दिनो में बजरी की अच्छी फसल हो गई। खेत का मालिक जागीरदार  को पता चला तब उसने आके  फसल देखि और कहा की तेरे भगवन का चमत्कार अच्छा हुआ है मुझे भी थोड़ी प्रसादी देना तब रुड़ा ने जागीरदार को उसके हिसाब का देदिया। और रुड़ा के पास पांच कलशी बाजरा रहा।  उसमे से २० किलो बजरी लेके सीधा गढ्डा गया वहा महारज नीम के पेड़ के नीची बिराजमान थे। रूडा भक्त ने महाराज के पास बजरी रख्ई।  महाराज ने पूछा ये क्या है तब रूडा भक्त ने कहा की ये  मेरे खेत की बाजरी। 

तब महाराज ने पास में बैठे मुक्तानंद स्वामी को कहा की में रूडा के घर गया था  उसके पास खाने के लिए दाने भी नहीं थे।  तो उसको भगवान की दया से उसके खेत में बजरी हुए।  मुक्तानंद स्वामी कहा हा महाराज आप अपनी भक्त की हमेशा खबर रखते हो। फिर महारज ने बाजरे में से  एक मुठी भर बाजरा खाया और बाकि का बाजरा जो हरी भक्तो की सभा बैठी थी उसको वितरण करने का आदेश दिया। 

ऐसे भगवान स्वामिनारायण ने निष्कामी (जिसे कोई मायिक कामना न हो )  रूडा भक्त की परीक्षा करके उसको सूखे से बचाया।


मुस्लिम भक्त केसरमिया 


एक समय श्रीजी महाराज  के मुस्लिम भकत केशर मिंया जो वढवान स्टेट के अंगत अधिकारी थे;  वो वाढवान के कारभारी महेतजी भानजी की साथ ध्रांगध्रा स्टेट के काम से गए थे। 

भानजी स्वामिनारायण का  द्वेषी था।  वो जहा पे ठहरे थे वहा इक भ्रामिन आयां।  भानजी ने उस भ्रमहं को बोला "यदी तुम स्वामिनारायण को गाली दोगे तो मे तुम्हे पेसे दूंगा"।  भ्रामहं भगवान को गाली देने  के लिए तैयर हो गया।  तब केशर मिया बोले "तुम स्वामिनारायण को गाली दोगे तो मैं तेरे सर पर मेरी तल्वार मारुँगा।  फिर भी पैसे की लालच में भ्रमहं ने भगावन को ग़ाली दि. तभी केशर मिया ने ज़ोऱ से अपनी तल्वार म्यान समेत भ्रमहं की सर पर मारी।  वो देख के भाणजी महेता ने तबही केशर मिंया को नौकरि से नीकाल दिया.
केशर मिया सीधे बाइ सहब की पास गए और बोला की भाणजी ने मुजे नौकरि से निकाल दिया है. इसलिए मै दूसरे गाँव रहने जा रहा हु. बाई साहेब ने बोला तुम हमारे तीन पीढ़ी से काम करतें हो. मे तुम्हे नहीं जाने दूंगी. मै भाणजी  को बोलूंगी की अबसे वो तुम्हें कुछ ना बोले.
थोड़े दिनों बाद भाणजी दूसरे महाजन के साथ जब दूसरे गॉव जा रहा था,  तब लुटेरो ने सब्को लूंट लिया.

केशर मिया थोड़े दिनों बाद श्रीजी महारज के दर्शन करने गए तब भगवान ने सभा में उनका स्वागत किया और बोले की ये सभजनो को तुम्हारे और भाणजी के बारे में बताओ।  तब केशर मिया ने पुरी हकीकत सभजनो को सुनाइ।  वो सुनके भगवान ने पुछा "तुम्हे नौकरी में वापिस नहीं लिया होता तो क्या करते ? " केशर मिया बोलेः "भीख मांगके खा लेता पर आप ख़ुदा को कोई गालि दें व सून नहीं सकता."

भगवान ने अति प्रसन्ना होकर अपने गले से पुष्प की माला उतारके केशर मीया को पहनाई। और पूछा तुम वरदान मांगो. केशर मिया ने माँगा "मेरे घर जो कोई मरे ऊसका कलयाण हों ओर ऊसको यमदूत लेनें न आये. "
भगवांन ने उसको वर दिया.

अभीभी ऐसे मुस्लिम भक्त भावनगर और आसपस के ग़ाँव में स्वामिनारायण धर्म का अनुसरन करके भागवान के अक्षरधाम जातें है.



सच्चिदानंद स्वामी ने यमदूतों को काम पे लगाया 



एकबार मण्डावधार गाव में, हरिभक्त के खेतमे गन्ने का सिचोड़ा (मशीन) और गुड बनाने का भट्ठा चल रहा था।  तब अचानक वहां खाखी बैरागी की जमात आ गई।  बैरागी ओ ने हरिभक्त को बोला की "हमें   अठरा कड़ा (१ कड़ा = १०० किलो) गुड और दोसो गन्ने दो नहीतो सिचोड़ा नहीं चलने देंगे। "
ऐसे बोलके बैरागी ने दंगा मचाना चालू किया। हरिभक्त ने बैरागी ओ को समझने की कोशिश की पर वो एक के दो न हुआ।  हरिभक्त ने तुरंत दो आदमी को गढडा श्रीजी महाराज के पास भेजा।  वो दो आदमीओ ने महाराज के पास आके बैरागीओ की मांग सुनाई।  महाराज ने तुरंत कहा की "ये सच्चिदानंद स्वामी और दूसरे चार संतो को साथ में ले जाओ। " तब वो पांचो संत मण्डावधार के लिए  चले।  रास्ते में सच्चिदानंद स्वामी ने कहा तुम दो में से एक, गाव में जाके धागे की ४ गढ़री छोटी छोटी लेके आओ हम दूसरे एक के साथ खेत में जाते है।  स्वामी दूसरे के साथ खेत में पहुचे. वहां  देखा तो बीस बैरागी बैठे थे।  स्वामी को देखके बोलने लगे की "जीवन्मुक्ता तुम क्यों यहाँ आये हो ?"
स्वामी बोले की तुम ढोंगी बैरागी साधु का भेस पहनके ये गाव वालो को डराते हो इसलिए ये लोगो ने हमें यहाँ बुलाया है।   तब  दूसरा हरिभक्त गाव में से धागे के कोकडे ले के आया।  उसके साथ गाव के दूसरे लोग भी जिग्नाशा वष देखने आये।  सच्चिदानंद स्वामी ने सिचोडे से बैल  छोड़ के चारो बाजु ये धागे बंधे।  फिर स्वामी ने वो बैरागी को बोला की यदि तुम सच्चे भगवन के भक्त हो और तुम्हारे पास सिद्धि हो तो ये सिचोडे को बैल के बिना अपनी सिद्धि से घुमाओ, यदि तुम नहीं घुमा पाओगे तो मई धागे से घुमाऊंगा और तुम्हे यहाँ से कुछ नहीं मिलेगा।

तब वो बैरागी ने बोला की हम नहीं पर तुम घुमाओ।  स्वामी  "स्वामिनारायण" बोलके खड़े हुए और सिचोड़ा के आसपास एक चक्कर लगा के भगवन का नाम लेके ताली बजाई की तुरंत सिचोड़ा अपने आप जोर से घूमने लगा।  वो देखके बैरागी और दूसरे लोग आश्चर्य चकित हो गए।  चिचोड़ा जैसे ही घूमने लगा, हरिभक्तों ने अंदर गन्ने डालने चालू कर दिया।  ३० या ४० मिनट में तो गन्ने के रस से पूरी कुण्डी भर गई।  तब फिर स्वामी ने वो रस गुड बनाने के लिए और गरम करने के लिए, लोहे की कड़ाई में डालने को बोला। और चूल्हे में पानी डालने की आज्ञा दी।  सभी को आश्चर्य हुआ की चूल्हे में पानी डालने के बाद चूल्हा कैसे जलेगा? तब स्वामी ने फिर से बैरागी को बोला की यदि तुम लोग सच्चे सिद्ध हो तो ये चूल्हे बिना अग्नि के चालू करो और गुड पका दो।    स्वामी ने बोला की तुम नहीं कर सकोगे तो मै बिना अग्नि के गुड पका दूंगा।  वो बैरागीओ काटो तो लहू निकले ऐसे शरम के मरे जुक  गए।  फिर स्वामीने चूल्हे के इर्दगिर्द घूम के जोर से ताली बजाके स्वमिनारायण नाम का उच्चार किया की तुरंत ठन्डे कोयलों में से अग्नि की ज्वाले प्रज्वलित हुई और थोड़ी ही देर में रस में से गुड पाक गया।

तब तक दूसरा रस घानी तैयार हो गया था।  स्वामी  हरिभको और दूसरे लोगो के सामने देख कर बोले की यदि अभीभी ये बैरागी बिना बैल और बिना अग्नि ये रस का गुड बना दे तो उनको १८ कड़ाई गुड और २०० गन्ने देना नहीं तो सभी बैरगिओ को उठाके ये चूल्हे में दाल दो।   वो सुनके सभी ढोंगी बैरागी वहा से अपनी जान बचके भागे।  

ऐसा सच्चिदानंद स्वामी का प्रताप देख के सभी हरिभक्त और दूसरे लोग बहुत राजी हुए।  तब जिसका गन्ने का खेत था वो हरिभक्त ने स्वामी को पूछा की "स्वामी, ये भरी सिचोड़ा बिना बैल कैसे घुमा? " तब स्वामी ने हस्ते हुए कहा की "जमपुरी में से मैंने चार जमदूत को ये चार धागो में बांधा था।  उन्होंने ये काम अपनी शक्ति से फटाफट कर दिया। ये तो भगवान स्वामिनारायण के प्रताप से सब हुआ " . सभी को ये देख और सुनके बहुत आश्चर्य हुआ। और कुछ लोग स्वामी से वर्तमान लेके सत्संगी हुए।  सबने स्वामी को दिन आग्रह करके रोक और सत्संग लाभ लिया।   दिन के बाद जब स्वामी और चार संतो चलने लगे तब हरिभक्तों ने गुड के मटके स्वामी के साथ भगवन के लिए गढडा भेजे।


द्वारिका में कृष्ण भगवान का सेवक करुणाशंकर 

 

कनम देशमे अहमदाबाद के पास डभोई गाव में करुणाशंकर नाम के भ्रामहण रहते थे।  वो सुभ सद्गुण संपन्न और शाश्त्र में प्रवीण थे।  और वो भगवान स्वामिनारायण में बहुत हेतभाव वाले थे।  संतो के साथ सत्संग करने के कारन वो स्वामिनारायण के सत्संगी बने थे।
एकबार जब भगवान वड़ताल पधारे तब करुणाशंकर भी श्रीजी महाराज के दर्शन करने वड़ताल गए।  महाराज को दंडवत करके वो महाराज के सामने बैठे।  तब श्रीजी महाराज ने करुणाशंकर से सामने देख कर बोला की "ये तो पूर्व कर्ष्णवतार में भी भगवान के भक्त थे ". तब करुणाशंकर को भी मन में विचार आया की "ये श्रीजी महाराज को मैंने जरूर  कही देखा है" . तभी महाराज की इच्छा से करुणाशंकर को पूर्व जन्म की स्मृति हुई की एक बार कृष्ण भगवान और उद्धवजी विचारविमर्श कर रहे थे तब कृष्ण भगवान को पिने का पानी मेने दिया था।  तब से कृष्ण भगवान ने मुझे आपना चाकर बनाया था।  पर वो वक्त मुझे भगवान की सही पहचान नहीं हुई थी।  पर आज पूर्ण पुरुषोत्तम स्वामिनारायण भगवान ने मुज पर  कृपा करके अपना आश्रित बनाया है।  
ऐसा विचार करके करुणाशंकर बड़े प्रेम से भगवान के भजन भक्ति में समय बिताने लगे।  थोड़े दिनों के बाद उनका अंतकाल आया और भगवान स्वयं आके करुणाशंकर को आपने अक्षरधाम में ले गए। 


स्वामिनारायण का राम के रूप में दर्शन 

 

भगवान स्वामिनारायण एक बार भुज शहर में सुथार हिरजीभाई के घर सभा कर के बिराजमान थे।  तभी सभा में सजी नाम की एक स्त्री महिला की सभा में आके बैठी।  वो बोलने लगी की "ये सहजानंद (स्वामिनारायण), भगवान बनके बैठा है पर मैं उसको भगवान मानती नहीं हु " ऐसा बोलके वो उठके चली गई।   
वहासे  पास के रघुनाथ जी के मंदिर में गई।  तब वह उसको रघुनाथजी की मूर्ति के बदले सहजानंद स्वामी दिखने लगे।  पर राभुनाथजी नहीं दिखे।  तब वो फिर से सभा में आई और उसको महाराज के बदले रघुनाथजी दिखे पर महाराज नहीं दिखे।  ऐसे उसे दो बार हुआ।  ऐसा देख के सजी ने मन में सोचा की कोई साधारण संत में ऐसे दर्शन नहीं होते। और कोई आपने में अवतार के दर्शन नहीं करा सकता।  ये स्वयं खुद सर्वावतारी भगवान ही होने चाहिए। जो सभी अवतार के अवतार है वोही अपने स्वरुप के बदले दूसरे अवतार का दर्शन करवा सकते है।  
ऐसा सोचके सजी भगवान के पास आई और वर्त्तमान ले के प्रत्यक्ष प्रगट पूर्ण पुरुषोत्तम स्वामिनारायण भगवान की सच्ची आश्रित हुई।   
 
ऐसे ही स्वामिनारायण भगवान ने जैनो को उनके तीर्थंकर, मुस्लिमो को उनके पैगम्बर, कृष्ण भक्तो को करुष के रूप में, राम भक्तो को राम के रूप में, देवी भक्तो को देवी से, और पारसी ओ को भी उनके आस्था वाले अग्नि के रूप में दर्शन देके अपने सर्वोपरी सर्वावतारी भगवान होने का परिचय कराया।  


रामभक्त  सोजित्र के पाटीदार ज़वेर भाई



गाव सोजीत्रा के पाटीदार ज़वेरभाई श्री राम के उपासक थे।  वह  हमेशा राम के मंदिर दर्शन करने के लिए जाते थे और रामचद्रजी की मूर्ति के  सामने खड़े रहे के पंद्रा माला जपथे।

 एक समय वो माला जप रहे रहे तब रामचद्र जी प्रतिमा बोली" ज़वेर ! यदि तुम्हे आत्यंतिक मोक्ष चाहिए तो स्वामिनारायण का  सतसंगी बन।   वो स्वामिनारायण अक्षरधाम के पति पूर्ण  पुरषोतम भगवान है। उनहो ने ये पुर्थ्वी पर अव्रतरित हो के  अनन्त का मोक्ष किया है।  और वापिस अपने धाम में पधार चुके  है। पर इसी गाव में उनका मदिर है।  वहां उनके संत जब आये तब उनके पास से वर्तमान लेके उनका  आश्रित बनना।" वो सुनके ज़वेर भाई बहुत प्रसन हुए।

 थोड़े दिनों के बाद वहां शुक स्वामी का मंडल आया हुआ सुन के जवेरभाई तुरंत स्वामिनारायण मंदिर गए और शुक स्वामी  को  राम जी की बात सुनाई। शुक स्वामी ने अच्छा मुमुक्षु जान के उनको वर्तमान धरा के सत्संगी बना या। 


श्रीजी महाराज ने स्वयं सर्वावतारि पूर्ण पुरुषोत्तम होने का परिचय दिया



गाव वड़ताल में महाराज पांचसौ परमहन्सो (भगवान ने जो बड़े ५०० संतो को दीक्षा दी थि. वो हर एक परमहंस के मंडल में दूसरे १० या २० संत रहते थे ) की सभा में अपने पुरुषोत्तम स्वरुप की गहन बाते कर रहे थे।  ये बाते ५ -६ दिन निरंतर चली।  फिर आखिर में बोले के हमारी बातो का रहस्य तो ये नित्यानंद स्वामी समझते है। 
 तब संतगण बोले "हे महाराज वो रहस्य क्या है ?" तब महाराज कहा उनको ही पूछिए।  तब नित्यानंद स्वामी बोले "पुरुषोत्तम तो अक्षर से पर और राम कृष्ण आदिक अवतार के अवतारी और सर्व कारण के कारण ये जो सामने बैठे है वो श्रीजी महाराज स्वयं है।  तब संतो ने महाराज को बिनती की "हे महाराज ! आपके सर्वोपरि स्वरुप का निश्चय हो ऐसी बाते कीजिए" . तब महाराज बोले "जब जब प्रगट पुरुषोत्तम की बात आती है तब तब सभी की मति भ्रमित होजाती है।  सर्व शाश्त्रो में स्वयं हरिकृष्ण पुरुषोत्तम का प्रमाण लेके दूसरे अवतार को पुरुषोत्तम कहा है।  इसलिए प्रत्यक्ष हरिकृष्ण पुरुषोत्तम को लिए बिना तो अक्षर को भी भगवान नहीं कहा जा सकता तो दूसरे अवतार की कहा बात रही।   यही बात पे सबकी मति भ्रमित हो जाती है; वो पुरुषोत्तम तो राम कृष्णा आदिक सर्वअवतार के अवतारी प्रत्यक्ष हरिकृष्ण हम है उसमे किंचित मात्र शंशय नहीं है। 
 इस प्रकार से श्रीजी महाराज ने संतगण के पास अपने पूर्ण पुरुषोत्तम स्वरुप की बात स्पष्ट रूप से कही। 



शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का पूनरजन्म जानबाई के रूप में 



शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी ने बहुत सालो तक भ्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था।  वह पुण्य के प्रताप से उसको प्रगट पूर्ण पुरुषोत्तम मिलाने के लिए और उसका मोक्ष करने के लिए उसका जन्म वलांक देश के छापरी गवके रावत चैत्रा नाम के काठी दरबार के घर जन्म लिया।  उनका नाम यह जन्म में जनबाई रखा था।  उनकी माता का नाम कामळ बाई था।  


जब जानबाई  की उम्र छोटी थी तब वह अपने माता के साथ श्रीजी महाराज के दर्शन करने गढडा गए थे।  तब श्रीजी महाराज ने कहा था की " ये जानबाई देवयानी के अवतार है।  और ये जन्म में उनका मोक्ष निश्चित है।  "

वह सुनके कामळ बाई बहुत राजी हुए।  और  जानबाई को अपनी पूर्वजन्म जी स्मृति हुई।  पांच दिन गढडा रहकर वो जब घर गए तब उन्होंने मनमे संकल्प कर लिया की यह जन्म में भी वो विवाह नहीं करेंगे और भ्रम्ह्चर्य व्रत का पालन करके स्वामिनारायण भगवान को प्रसन्न करेंगे।  
वह सांख्य योग का पालन करने लगे और प्रगट भगवान का भजन करने लगे।  उन्होंने एक अलग कमरे में रहके पूरी रत एकहि आसान में बैठ के, आपने घुटनो पर घंटी के पड़ रख के, पानी चोटी को ऊपर बांध के भगवान का भजन , ध्यान करना चालू किया।  ऐसे दिनरात वह भजन करने लगे। ऐसे थोड़े महीनो तक किया।  फिर जब उनकी माता गढडा भगवान के दर्शन को जाने तैयार हुए तब उन्होंने जानबाई को पूछा, "तुम भी चलो साथ।  " जानबाई ने कहा, "भगवान को दर्शन देने की गरज होगी तो  यहाँ पे आएंगे।  मै कही नहीं जाउंगी।  "


तब कामळ बाई  अकेले गढडा गए।  महाराज ने जानते हुए भी पूछा, "क्यों जानबाई नहीं आई ? "

तब कामळ बाई ने सभी बात महाराज को बताई।  महाराज बोले "ठीक है शुक्राचार्य की पुत्री है तो हमें ही वह आना पड़ेगा।  "


थोड़े दिनों बाद भ्रम्हानन्द स्वामी आपने मंडल लेके घूमते हुए छापरी गाव पधारे।  उनके रहने की व्यवस्था रावत चतरा ने जानबाई के कमरे के पास वाले कमरे में की।  स्वामी ने  रात के ११ बजे तक रावत चैतरा और उनके पुत्र जूठा चैतरा को सत्संग करवाया फिर जाने की आज्ञा दी।  जब स्वामी आराम के लिए सोने जारहे थे तब , एक वृद्ध बाई को जानबाई के कमरे में जाते हुए स्वामी ने देखा।  स्वामी सोचने लगे की रत के १२ बजे ये कौन हो सकता है ? 



दूसरे दिन जब रावत स्वामी के सत्संग करने आये तब स्वामी ने कहा की तुन रात के १२ बजे तक रुकना।  और स्वामी ने सब बात रावत को बताई।  वो रुके।  जब रात के १२ बजे तब जो स्त्री  जानबाई के कमरे में गई।  और थोड़ी बात सुनी।  तुरंत रावत जानबाई के कमरे के पास गए और दरवाज़ा खटखटाया।  तब जानबाई ने दरवाज़ा खोला की तुरंत जूठाभाई  कमरे में घुस के छानबीन करने लगे।  जथाभाई ने कहा, " मैंने किसीको आपके कमरे में आते देखा है और आप दोनोंकी आवाज़ भी सुनी है।  कौन है वो? " जानबाई ने कहा कोई नहीं है।  तब जूठाभाई ने कहा "यदि आप नहीं बताएगी तो मै ये तलवार से खुद का सर काट दूंगा। " 



तब जानबाई ने कहा की "शेठ लक्ष्मीचंद की घरवाली जो मर के चुडेल बानी है वो हर रत को मेरे पास सत्संग करने के लिए आती है।  मैं  उसको भगवान की बाटे सुनती हु।" जूठाभाई ने कहा "हम कैसे मान  ले ?"  तुरंत वो चुडेल दृश्यमान हुई और बोली "अरे मुर्ख, ये अवतार में मैंने रजस्वला का धर्म नहीं पालन किया था।  वही कारन मै चुडेल बानी हु।  आब मुझे ये जानबाई का सत्संग हुआ है।  उन्हों ने मुझे प्रत्यक्ष भगवान का निश्चय करवाया है।  उन्हों ने मुझे वचन दिया है की मुझे अक्षरधाम में ले जायेंगे।  स्वामिनारायण भगवान की बाते सुनने के लिए मैं यहाँ हररोज आती हु।  "


यह सुनके जूठा स्वामी के पास गया और सभी बात बताई।  स्वामी प्रसन्न हुए।  स्वामी जब गढडा वापिस गए तब सभी बात श्रीजी महाराज को बताई।  

थोड़े  दिनों के बाद जब स्वामिनरायण भगवान दादा खाचर का विवाह करवाने के लिए भटवादार जा रहे थे तब दूसरा स्वरुप धारण करके पार्षदो के साथ छापरी गए।  कामळ बाई ने महाराज को बैठने के लिए ढोलिया बिछाया।  भगवान ने पूछा, "जानबाई कहा है ? हम दर्शन देने के लिए आये है।  हमें उनके कमरे तक जाना पड़ेगा या वो यहाँ पे आएंगे? "  कामळ बाई ने तुरंत जानबाई को महाराज के आने की खबर दी।  

जानबाई ने हर्षाश्रु लाके भगवान के दर्शन करे। और महाराज को पूछा "हे महाराज ! अठाईस युग बिट गए आब मेरा छुटकारा कब होगा? "  तब महाराज ने कहा आज से एक महीने के बाद हम आपको लेने के लिए आएंगे।  जानबाई ने कहा "हम तीन है ", महाराज हंसके बोले "तीन कौन ?"  जानबाई ने कहा "तीन कौन? " जानबाई ने कहा " मैं, मेरी मौसी की लड़की और तीसरी एक बनिए की डायन।  "

तब महाराज हंसके बोले "वो भुत को भी साथ लेना है ?" जानबाई ने कहा "मैंने वो दोनों को वचन दिया है " महाराज ने वर दिया "तुम तीनो का कल्याण करेंगे" ऐसा कहके , महाराज पार्षद सहित अदृश्य हो गए।  

एक महीने बाद महाराज जब लेने आये तब जानबाई ने अपने सेज सम्बन्धी ओ को कहा की "भगवान लेने आये है और हम तीनो भगवान के साथ अक्षरधाम में जा रहे है।  "


बोटाद के नरसीभाई भावनगर के  दरबार में 



एक समय पे बोटाद के नरसीभाई जोशी भावनगर नरेश वजेसिंहजी के दरबार में कोई काम के लिए गए थे।  जब वो दरबार में बैठे थे तो किसी चरण ने स्वामिनारायण भगवान के लिए बुरा बोला।  वो सुनके नरसीभाई ने चरण को कहा "अरे मुर्ख ! स्वामिनारायण तो साक्षात भगवान है।  लाखो मनुष्यो को पाप कर्म छुड़वाके धर्म के मार्ग पर चलाया है।  उनके लिए ऐसे अपशब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए। " तब वजेसिंहजी महाराज ने भी चरण को कहा की "स्वामिनारायण बड़े पुरुष है।  उनके लिए ऐसी भाषा शोभा नहीं देती।  उनके कारन भावनगर राज्य के कई अपराधी और डकैत भक्त बन गए है। "


थोड़े दिनों के बाद जब नरसीभाई गढडा में महाराज के दर्शन करने गए तब ये बात बताई।  वह बात सुनके महाराज बहुत प्रसन्न हुए।  और उनका ओढ़ने का जो कम्बल था वो नरसीभाई को दिया।  वह कम्बल अभीभी बोटाद मंदिर में भक्तो के दर्शन के लिए रखा गया है।  




रबारी को यमदूतों से बचाया 




गाव जुरा में पटेल देवदास अच्छे हरिभक्त रहते थे।  उसके अच्छे मित्र रबारी के पास से उन्होंने एक अच्छी सोटी मांग ली और वो गढडा भगवान के पास जाके भेट दी।  और थोड़े दिन गढडा रहके वापिस अपने गाव गए।  


थोड़े दिनों के बाद वो रबारी का स्वस्थ बिगड़ा और उसको महाभयंकर ऐसे यमदूत लेने के लिए आये।  यमदूतों ने उसको कुए में उल्टा लटकाया और मरने लगे।  तब वो रबारी वोअपनीdukh से छुटकारा लेने के लिए  माताजी , और दूसरे देव और देविओ का नाम उच्चारण किया पर कोई भी उसे बचने नहीं आये।  तब उसको याद आया की पटेल देवदास के स्वामिनारायण का नाम लु। उसने जैसे ही स्वामिनारायण का नाम सोचा तुरंत भगवान उसकी सोटी के साथ प्रगट हुए और यमदूतों को वाही सोटी से मार के भगा दिया।  और रबारी की रक्षा की।  



थोड़े दिनों बाद जब रबारी स्वस्थ हुआ तब उसने सोचा की स्वामिनारायण जरूर साक्षात भगवान है।  यह सोचके वो गढडा गया और वर्तमान लेके स्वामिनारायण भगवान का सत्संगी हुआ।  उसने जीवन पर्यन्त वर्तमान निभाए।  


विशनगर  का शोभाराम अँधा हुआ



विशनगर शहर में एक शोभाराम नाम का नागर भ्रामहण रहता था।  वह स्वामिनारायण का द्वेषी था और निरंतर स्वामिनारायण के सत्संगी और सत्संग का द्रोह करता रहता था।

उसकी बहन स्वामिनारायण की सत्संगी थी।  यही द्वेष के कारन उसको ज्ञाति के बाहर कर दिया था।  फिर भी उसका स्वाभाव गया नहीं।  एक दिन जब सत्संगी बैठे थे तब वह जाके वो बोला "देखो मैं इतने सालो से स्वामिनारायण का द्रोह कर रहा हु फिरभी सुखी स्वस्थ हु इसीलिए स्वामिनारायण भगवान नहीं है।  यदि होते तो मुझे कुछ तो करते? तुम लोगो ने स्वामिनारायण का यज्ञ क्यों सफल होने दिया ? मैं होता तो यज्ञ में गिरके स्वामिनारायण को भ्रमहत्या का पाप देता।"

तब दूसरे भ्रम्हाणो ने उसको समझाया की स्वामिनारायण हम भ्रम्हाणो का हर यज्ञ में सन्मान करते है, हमें अच्छी दक्षिणा देते है, जो सीधा सामान चाइये उतना देते है, पानी मंगाते है तो घी देते है, वह तो साक्षात भगवान है। " ये बात सुनके शोभाराम को बहुत गुस्सा आया और बोला "यदि स्वामिनारायण भगवान है तो मुझे वो आठ दिन में अंधा करदे" दूरसे सत्संगिओ ने उसे समझाया की भगवान नो चिंतामणि है।  जो चिंतवन करेगा वो मिलेगा।  कुछ अच्छा संकल्प कर।  वह बोला "भगवान हो तो भले वो मुझे अँधा करे। " तब सिर्फ चार दिन के बाद ही वो अँधा हो गया। 

यह देख के विशनगर के लोग ने सोचा की मुर्ख को अच्छा मांगना भी नहीं आता और सामने से दुःख को न्योता देता है। 


भक्त प्रहलाद को बचाने वाले विशनगर  के शेठ जमखुराम 


वड़ताल में उत्सव पूरा हुआ तब गाव की पूर्व दिशा में भगवान आम के पेड़ के निचे रात्रिके समय में हजारो मनुष्यो की सभा में खड़े हो के आशीर्वचन दे रहे थे।  तभी विशनगर के शेठ जमखुरम निद्रा के कारन बीच बीच में सो रहे थे।  तब महाराज ने आपने हाथ लम्बे करके जमखुरम के मस्तक पर  उनकी सोटी धीरे से मारी। तब जमखुरम जाग के महराज के चरणारविन्द पकड़ के पूछने लगे , "महाराज मुझे सोटी क्यों मरी ?" तब महाराज बोले की "हिरण्यकशिपु ने जब प्रहलाद को मरने की आज्ञा तुजे की थी तब तू प्रहलाद को भक्त जनके उसकी रक्षा करता था।  वह पुण्य के कारन तू भक्त बना है।  पर वह समय के तेरे जो पाप थे वो मैंने आज सोटी मारके नाश कर दिए। 

तबसे जमखुरम को महाराज की मूर्ति अखंड दिखने लगी।  पर वो इससे इतना गभाडा गया की उसने भगवान के पास आके प्रार्थना की "आपकी मूर्ति मुझे सर्व क्रिया में दिख रही है, इसके कारन मैं आपने व्यवहारिक क्रिया कैसे करू? " महाराज ने कहा "तुजे अच्छा नहीं लगा? तो अबसे नहीं दिखेगी।  "

तब उसने कहा नहीं महाराज मुझे आपकी मूर्ति दिखे पर जब मैं ध्यान करने बैठु तब दिखे।  महाराज ने प्रसन्न  होकर " कहा ठीक है। "


वडनगर के ऊजम के ५०० रुपये का घाटा होते बचाया 


वडनगर में ऊजम नामका एक सुखी भ्रामन रहता था।  वह अच्छा सत्संगी था।  वो डभाण में भगवान ने जब यज्ञ किया था तब वह गया था।  डभाण वडनगर से १६० किलोमीटर है।  उसने भगवान के दर्शन किये।  भगवान ने उसको पूछा "तुम्हारे पास कितने पैसे है ? " उसने कहा पांचसो रुपये है पर वो एक बनिए को दिए है।  महाराज ने पूछा  वो रूपये हमें दोंगे? उसने कहा हा महाराज।  मैं वहासे  रूपये लेके आपको दूंगा।  महाराज ने कहा, "अभी जाके लेके आओ " वो तुरंत वापिस वडनगर गया और रूपये लेके डभाण आया और महाराज को दिए।  महाराज ने कहा मुझे ये नहीं चाइये।  जिसको तुमने ये रूपये उधार दिए थे वो थोड़े ही दिनों में देवला फूंकने वाला था। 

थोड़े दिनों बाद जब उजम वापिस वडनगर गया तो उसने सुना की वो शेठ ने देवला फ़ूंक दिया है।  ऐसे जो भक्त भगवान के शरण में आता है, भगवान उसकी रक्षा जरूर करते है। 

परशुरामजी ने श्रीजी महाराज के लिए रतंजलि का हार भेजा


एक बार पांच साधु देश में घूमते घूमते विंधियाचल की जाड़ी में भूले पड गये और कोई रास्ता नहीं दिख रहा था और चिन्तित हो गई थे।

तब बड के पैड के निचे के एक पुरुष को देखा। वो पुरुष बैठे बैठे ही पांच हाथ लंबा था और मोटी भुजा थी और मोटे पैर  थे और मोटी आँख और स्वेत रताश शरीर वो पुरुष का था। उसको देख के वो पांच साधु सोचने लगे की वो" पुरुष कौन होगा ? तब वो पुरुष ने  साधुओ को बुलाया की मेरे पास आए और डरे नहीं ।

 " तब वो साधु उसके पास गए।  वो पुरुष बोल की "आप स्वामिनारायण के साधु हो वो मुझे पता है और स्वामिनारायण भगवान अभी गढडा में बिराजमान है।  ये हार पेहना के मेरा नमस्कार करना। " ऐसा कहके रताजली का हार संतो को दिया। फिर साधु ने उसका नाम पूछा की "आप का नाम काया है ?" तब उसने बोला की" स्वामिनारायण भगवान मेरा नाम जानते है " वैसा कहके संतो को रास्ता दिखाया।  फिर वो साधु  चलते चलते गढडा आये और वो हार महाराज को पेहनाया और बात कही।  संतो ने पूछा " हे महाराज ! वो कौन थे ?" तब महाराज ने बोला की " वो तो परशुराम थे। " फिर वो हार महाराज ने उनके पास बैठे मुलजी शेठ को दिया।


ब्राम्हण को शिवजी ने कहा स्वामिनारायण  सर्वावतरी भगवान है 

एक बार श्रीजी महाराज दादा खाचर के दरबार में बैठे थे. वह समय एक ब्राम्हण आया. वह ब्राम्हण सामुद्रिक शास्त्र पढ़ा हुआ था. वो श्रीजी महाराज के पास सभा में बैठा. 

वह ब्राम्हण बोला " आप अपने आप को भगववान क्यों कहलाते हो? में जनता हु की आप उत्तरप्रदेश के ब्राम्हण  हो और हरिप्रसाद के बेटे हो. भगवान बनके क्यों बैठे हो ? और भगवान की गद्दी पे बैठना नहीं चाइये." ऐसे बहुत बार बोलने लगा. 

श्रीजी महाराज शांत चित्त से सुनते रहे. फिर भगवान बोले "हमने जब गृह त्याग किया तो बड़े बड़े राज्य रस्ते में आये. कहिपे गद्दी खली नहीं देखि. जब यहाँ देश में आये तब भगवान की गद्दी खली देखि. इसलिए भगवान की गद्दी पर बैठ गए. "

ऐसा बोलके, भगवान ने अपने चरण ब्राम्हण के सामने रखे. तभी उस ब्राम्हण ने भगवान स्वामिनारायण के पैर में सोला अद्भुत चिन्ह देखे. ब्राम्हण  सोचने लगा की सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार ऐसे सभी सोला चिन्ह तो सिर्फ भगवान के पैर में हो सकते है. किसी और के नहीं. अभी भगवान के पैर से अद्भुत ठंडा और श्वेत तेज निकलने लगा. ब्राम्हण देख के आश्चर्य में पड़ गया. और भगवान स्वामिनारायण की इच्छा से उसे समाधी हो गई और सीधा अक्षरधाम गया. वह अनन्त मुक्तो से घिरे यही भगवान के उसे दर्शन हुए. वह दो घंटे तक समाधी में रहा और समाधी का सुख लिया. वह ब्राम्हण शंकरजी का उपासक था. उसने अनन्त शंकर को महाराज जी स्तुति और पूजा करते समाधी में दर्शन किये. शंकर ने उस ब्राम्हण को कहा "यह पुरुषोत्तम नारायण सर्व अवतार के अवतारी है. उनका आश्रित बनके उनका भजन कर तभी तुम्हारा मोक्ष होगा. और यह शाश्वत अक्षरधाम की प्राप्ति होगी." वह ब्राम्हण को भगवान वापिस समाधी से देह में लए. समाधी से बहार आते ही वह ब्राम्हण ने महाराज को कहा की आप तो सर्व अवतार के अवतारी हो. और अनन्त भ्रम्हांडो के राजा धीरज हो. मैंने अज्ञान वश आपको बहुत अनाप शनाप बोल. उसके कारन में माफ़ी माँगा हु. मुझे आपकी शरण में लो. 

भगवान ने उसके सर पे हाथ रखके उसको आशीर्वाद दिए और उसको वर्तमान देके कंठी पहनाई। ऐसे भगवान दयालु है. 


दावोल गांव के जेठाभाई को श्री रणछोड़रायजी ने भगवान स्वामिनारायण के पास भेजा


दावोल गांव के जेठाभाई हर पूनम पर श्री रणछोड़रायजी के दर्शन जाते थे. ऐसे दर्शन करते हुए २५ साल बीत गए. तब एक बार रणछोड़रायजी ने प्रसन्न होकर कहा मांगो।  तब जेठाभाई बोले की प्रत्यक्ष भगवान के दर्शन करने है. रणछोड़रायजी ने कहा "प्रत्यक्ष भगवान स्वामिनारायण अभी गढडा में बिराजमान है वह जाओ. उनका आश्रय करो और उनका भजन करो. तुम्हारा आत्यन्तिक कल्याण - मोक्ष होगा. " यह सुनके जेठालाल गढडा गए. उनको आते देख स्वामिनारायण भगवान बोले "आओ जेठालाल, तुम्हे रणछोड़रायजी ने भेज है?" ऐसा अंतर्यामी वचन सुनके जेठालाल को निश्चय हुआ की यही प्रत्यक्ष भगवान है. जेठालाल ने भगवान के पास से वर्तमान धारण किये और सत्संगी बने. उसने अपने गाव जाके और दूसरे भी लोगो को यह बात बताई. दूसरे आस्तिक जन भी स्वामिनारायण के सत्संगी बने. 


मुजपर गांव के संघाभाई  पटेल को शंकर ने दर्शन दिए 


मुजपर गांव के संघाभाई  पटेल शंकर के भक्त थे. संघाभाई  हररोज सुबह शंकर की पूजा करने के लिए शंकर के मंदिर जाते थे. और हररोज प्रार्थना करते थे की मुझे प्रत्यक्ष भगवान के दर्शन करवाए. पर शंकर जवाब नहीं देते थे. एक दिन संघाभाई  ने सोचा की कल यदि शंकर जवाब नहीं देंगे तो में कमल पूजा करके मेरा सर शिवलिंग पर चढ़ाउंगा. दूसरे दिन पूजा की सामग्री के साथ वह एक छर्रा भी साथ में ले गया. हररोज की तरह उसने शिवलिंग की पूजा की. और आखिर में शंकरजी से प्रार्थना की "मुझे प्रगट भगवान के दर्शन करवाए" पर शंकरजी ने जवाब नहीं दिया. तब उसने छरा हाथ में लेके उसका मस्तक काटने के लिए हाथ उठाया तभी शंकर साक्षात प्रगट हुए और उसका हाथ पकड़ लिया. शंकर बोले "गढडा में स्वामिनारायण प्रत्यक्ष भगवान है तुम उनके पास जाके उनकी शरण में जाओ. वह तुम्हारा आत्यन्तिक कल्याण करके मोक्ष करेंगे." 


संघाभाई  तुरंत घर आके गढडा की और चले. गढडा पहुंचके दादा खाचर के दरबार में अक्षर आरडी में जाके स्वामिनारायण भगवान के दर्शन किये स्वामीनारायण भगवान तुरंत बोले "संघाभाई  तुम्हे शंकर ने हमारे पास भेज है?" संघाभाई  ने कहा हा महाराज. मुझे आपका सत्संगी बनाए। 
श्रीजी महाराज ने संघाभाई  को वर्तमान देके कंठी पहनाई और सत्संगी बनाया. संघाभाई  वाही पे कुछ दिन रहे. फिर भगवान को मिले और बोले की मुझे आपका संत बनना है. भगवान ने कहा "तुम्हारे माता और पिता की सम्मति लेके आओ" संघाभाई  तुरंत आपने गाव गए और गाव के चौराहे पे पहुंचे की उनके चाचा मिले. उन्होंने संघाभाई  को पूछा कहा से आ रहे  हो? संघाभाई  ने कहा मुझे प्रगट भगवान मिल गए है. चाचा बोले की तो फिर यहाँ वापिस क्यों आये? वही पे रहना था. संघाभाई  ने कहा इसीलिए तो में चिठी लेने आया हु. उनके चाचा ने तुरंत रजामंदी की चिठ्ठी लिख दी. संघाभाई  वापिस गढडा  आये और महाराज को चिट्ठी दी. महाराज ने उन्हें भगवाति दीक्षा देके सिद्धानन्द नामकरण करके सच्चिदानंद स्वामी के पास रहने को कहा.



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